Sunday, September 23, 2012

अधुरा प्यार

कितने दूर चलूँगा ऐसे
कोई सीमाएं तो होगी
जूतों को कितना देखूंगा
फीते कितनी बार कसुंगा
बार बार ये खुल जाते हैं
और मुझे उलझा जातें हैं
कितना दूर चलूँ मै बोलो
दस्तक पे दरवाजे खोलो
जोगी बन के द्वार तुम्हारे
कितनी सदियों खड़ा रहूँगा
दूरी तो इतनी नापी है
घिसे पाँव और रिश्ते छले
कितनी और तपस्या होगी
किसको पूजें तुमको पा लें
शायद रास्ता अंतहीन है ,
या शायद ये ही मंजिल है
जतन करू कितने मै पाने
रस्ते हैं कितने अनजाने
जाने किस धुन में खोयी हो
बिसरी यादो में रोई हो
कैसे दूर करू ना जानू
और किसी की बातें कितनी
तकिये में भर के सोयी हो
लेकिन मेरा जोग यही है
जितना है सुख भोग यही है
एक दिन ऐसा भी आएगा
कोई मुट्ठी भर जायेगा
चावल के सफ़ेद दानो से
कितना भी भीचुं फिसलेंगे
भर खुशियाँ तुम पे बरसेंगे
तुम्हे विदाई दे जाऊँगा 
तेरे द्वार फिर ना आऊंगा
दुखद स्वप्न ये ही मेरा
इससे कितनी दूर चलूँगा
कितने दूर चलूँगा ऐसे