Monday, December 12, 2011

प्रवासी


चरमराती है कमर आखिरी करवट सुबह लेकर 
उनींदी आँख मलते तब , ख़्वाब कुछ खोजता हूँ मै 
बिखर जाते हैं जो आते हुए यूँ होश में मुझसे, 
उन्ही की छाप भी चुपचाप  कुछ पल सोचता हूँ मै 
सोचते सोचते ही निपटते है काम तडके के , 
नहाकर झड गए बालों का मातम भी मनाओ मत ,
वक़्त कम है , बहुत कम है , मगर ये सोच चिपकी है 
जिस्म से खाल के जैसे , खाल से बाल के जैसे ... 
उतर कर तब इमारत से , घडी भर भींचता हूँ  सब 
वो हरियाली सुबह की , और किसी पंची का वो परवाज़ .. 
किनारों से पलक के अब भी जो बोझिल है जाने क्यूँ ! 
न जाने क्या उठाये है , जो इतना थक गयी हैं वो ?
मुझे तब खिंच लेती है , वो टपरी टीन की बरबस 
जहाँ जुड़ते हैं कुछ मजदूर पीने चाय की प्याली 
मेरे जैसे मेरे जैसे ...  

दो बढ़ते पिल्लै अपनी दुम हिलाते हैं , मेरे आगे 
और उनकी माँ कपासी रंग की , भी टोह लेती हैं 
कुछ वडा-पाव के टुकड़े , न जाने कौन दानी दे ?
मेरी आँखों में यूँ वो झाँकने का जतन करती है ... 
चुस्कियां चाय की लेते , पराये देस में अपने 
बोलते हैं जुबानो में , हंसी ठठ्ठो में बेतरतीब 
मुझे तब याद आती है , वो पिच्छले बरस की होली 
मेरे कानो में जब घुलती है वो घर-गाँव की बोली 
सने होते हैं गारे में फटे कुछ , और सजे पैबंद 
कपडे ढांकने तन श्रमिक के , जैसे मेरे ये शब्द 
घर से दूर आये , धान की मिटटी सने जो पाँव 
जोड़ने को फसल के बीज , कल के ख़्वाब , छत की छाँव 
मुझे भी खिंच लायी है , मेरी फसलों की उम्मीदे 
मै भी उनकी तरह बैठा हूँ इस परदेस में आकर ...
हांकते जा रहा वो खुदा जैसे मै उसकी भेड़
पास ही है इसी टपरी के एक बरगद का बूढा पेड़ 
जटाएं झूलती उसकी , हवा में जैसे मेरे ख़्वाब 
मगर गहरे जमी धरती में है जड़ सोखने को आब 
मै भी जाऊंगा घर एक दिन , किसी मजदूर के जैसे 
मेरी फसले निहारूंगा , न जाने कब किसी दिन और ..
उड़ेंगे एक दिन परदेस के पंच्छी , परो को खोल 
टूट जाएगा जब ख्वाबो से भर के , ख़ाक का गुल्लक  
मेरे मन हार ना , एक दिन यकीनन होगा ऐसा भी 
बसेंगे फिर से अपने घर , चलेंगे फिर से अपने गाँव ...


Monday, December 5, 2011

सवाली


हक से मिले जो फांक 
न हक से मिली वो ख़ाक 
कपडे बदलते रोज़ , 
जो बदले न उसमे झाँक ...


हर रोज़ जलना है मुझे 
मानिंद-ऐ-आफ़ताब ..
पल पल कहे पुकार के 
पल पल का रख हिसाब ...

जुम्बिश से ही बता दियो 
समझूंगा साफ़ साफ़ ..
कैसी तेरी जुबान है, 
के लिहाफ पर लिहाफ 

न इल्म का सुकून मुझे 
न कुफ्र की फ़िराक
मुझको सनम की चाह है 
मोमिन पढो किताब ...

मै तो तेरा मुजस्समा 
तू मेरा संगकार ..
जो मै ख़राब तो तेरी 
कारीगरी ख़राब ..

मौजूद अब भी चार सु 
सोये है बेहिजाब ... 
अपने सवाल मै गिनू 
दीजो मुझे जवाब ...



Sunday, November 27, 2011

गूंथी कहानियाँ , एक दिन का लेखा जोखा


नींद किसे प्यारी नहीं होती 
मै भी सोया था एक रविवार की सुबह 
इतनी गहरी नींद कि  सपने भी दस्तक न दे , बस औंधे पड़े रहे ... 
लेकिन जगा दिया किसी ने , फ़ोन की घंटी से 
मिलना था जरुरी , अकेले कटता भी नहीं समय 
नहा संवर कर निकल गया , रिक्शा पकड़ कर मीटर हिसाब से 
रास्ते पर देखी एक कोयल , लाल आँखों से घूरती , 
निर्लज्ज न जाने किस के घोसले में अंडे दे आई होगी 
एक कब्रिस्तान गुजरा , और एक कुत्ता देखा .. पहरे देता 
शायद HMV के मोनो में ग्रामोफोन की जगह एक कब्र थी , इसलिए याद रहा 
बड़े शेहरो की मेल-भेंट जैसे होती है , एक moll पे किसी का इंतज़ार करना था 
moll पंहुचा तो देखा बंद था , नींद से वो भी फारिग नहीं था रविवार की उस सुबह .. 
... 
चिलचिला रही थी सर पे ठण्ड की धुप , सूखता जा रहा था गला 
तब अवतरित हुआ कहीं से , lemon सोडा ढ़ोता एक देवदूत 
एकाएक तब छायादार वृक्ष भी अनावृत हुआ अदृश्यता के चोगे त्याग 
एक ग्लास हलक से उतार कर , अमृत सुधा में खोया था , 
के फिर जगा दिया मुझे चलते फिरते लोगो ने , 
वो सिग्नल पे खड़ा तोंदू मामा , newspaper लिए बैठी लडकियां 
और अन्य जूझते लोग ... 
तब एक बैलगाड़ी ने सिग्नल तोडा , बैल था बलिष्ट बड़े बड़े सींग , मांसल देह .. 
साक्षात नंदी हो जैसे , बर्फ की सिल्लियाँ ढ़ोता 
मामा ने रोकना चाह , चालक बोला "काय करणार साहेब !! बैल आहे "
और निकल पड़ा .. मुझे फिर प्यास आई , और फिर lemon सोडा से तृप्त हुआ .. 
तब उस विशाल बैल ने प्रेमचंद के "दो बैलों की कहानी" की पहली पंक्ति याद दिला दी 
गधा सबसे सीधा जानवर होता है , उसके बाद बैल आता है ..
वो बैल शायद इसलिए बेवक़ूफ़ है क्यूँ की वो ढ़ो रहा है बर्फ की सिल्ली प्यासा 
शिव के वाहन समान , कल्याण करता फिर रहा है लोगो का , निस्वार्थ ...

फिर मिलना हुआ एक मित्र से , औपचारिकताएं निभाई .. कुछ सुनी कुछ सुनाई 
देखा समाज में फिर जा कर , एकांत से निकल कर .. कुछ अकबकी सी महसूस हुई 
जैसे चुंधिया जाते हैं किसी कोयला खदान के मजदूर की आँखे वापस आ कर भू-गर्भ से 
विदा कर निकल पड़ा फिर स्टेशन से मै .. अपने फ्लैट को .. की कबूतरों ने मेरा मार्ग छेंक लिया 
चार दाने मेरी जेब में होते तो शायद दाल देता .. लेकिन बिना रोयल्टी उनके छायाचित्र निकाल लिए 
तब याद आ गयी सुबह की वो कोयल .. उन्मुक्त कबूतरों की बात से 
मधुर मोहिनी गाती , और सौंप जाती अंडे घोंसले में कागो के  ..
शायद इसलिए इतनी कुरूप , भयानक लाल आँखों वाली है वो ..
सुना है कागा बड़ा सयाना होता है , लेकिन वो भी चूक जाता है ...
शायद हमें सिखाता है , बड़े बुजुर्गो जैसे .. गलतियां न दोहराने अपनी 
पित्र पक्ष में शायद इस लिए भाग पाता है बलि का ...

आज वो श्वान फिर याद आया मुझे , बचपन के सपने जैसे ...
कब्र को देखता ... हो सकता है उसे एक हड्डी की तलाश हो , पेट भरने 
मगर लगता है , जैसे बहुत पहले चिर-निद्रा सोये अपने मालिक की बाट देखता है ..
प्रेम-पाश में ... ये निस्वार्थ नहीं , लेकिन स्वार्थ के साथ भी नहीं 
इंसान का पुराना दोस्त .. संगत में बिगड़ तो नहीं गया सदियों की ..
प्रेम तो करता है निस्वार्थ स्वाभाविक , लेकिन पेट से विवश है 
इसलिए नचा लेते हैं लोग, और नाचता है यह ...
ये जीवन बंधन शायद इसकी विवशता है ... 
सिखाता है मुझे वो नश्वरता दुनिया की , बन्धनों की .. 
और प्यार में डूबे हुए भी , अपना पेट भरने की जुगत करने की ...

Wednesday, November 23, 2011

नैन सुने

कोई मेरे लफ्ज़ चुरा ले 
बस आँखों से बातें कर लूँ 
रुई के फाहे भर कानो में 
सारे रंग तुम्हारे चख लूँ ..
इधर उधर फैला है जितना  
इतना निश्छल इतना निर्मल 
बहते झरने से चेहरों के  
बाँध अंजुली अमृत हर लूँ .. 
नापी तौली , सजी नहीं 
जो किसी तार से बुनी नहीं 
वो बैन अबोली समझो तो 
मै सागर गागर में भर लूँ ...
कल पर्दा ये गिरता होगा 
बड़ा फेर है वक़्त वक़्त में
नाट्यमंच फैला है विस्तृत
पल में जी लूँ ,मन में रख लूँ .. 

Wednesday, October 26, 2011

किसान की पहली बेटी


एक किसान के नमक से नहाकर 
खिलती है फसल , लहलहाती हरे रंग में ,
बचपन से यौवन तक गीत गाती है , चौमासे के 
खिलती है , खिलखिलाती है, ठंडी पुरवाई में 
बूढ़े किसान की मानिनी बेटी जैसे, 
आश्रय पाती है उसका , उसकी इज्ज़त हो कर ...
कालांतर में सोने से लद कर , ऋतुवती
उसके कंधो से उतर यौवन पे शर्माती है 
श्याम वर्ण असमय मेघों की चिंता 
उस किसान के माथे का बल बन जाती है ... 
तब वो नत होता है .. ईश्वर के आगे गिनता है घड़ियाँ 
उस दिन तक जब चढती है उसकी पहली बेटी डोली ... 
स्वर्ण-वर्ण , घर की खुशियाँ बनकर ...
तब होते हैं तीज , त्यौहार उस किसान के घर आगंतुक 
दीप मालाएं सजती है उसकी कुटिया में , 
मिठास घुलती है , पकवानों की 
आती है तब गुलाबी चूड़ियां , लक्ष्मी की कलाइयों में 
तब आते है लाल जोड़े , जुड़ता है दहेज़, बहनों की खातिर 
जब इस तरह किसान की पहली बेटी , बाबुल का फ़र्ज़ निभाती है ...

Tuesday, October 4, 2011

माँ


जब आंते भूख से कुलबुलाती है 
चिपक जाती है भीच लेने तब तेरा आँचल
फैल कर बाहें पेट के इर्द गिर्द 
बस हवा रह जाती है , आवाजें करती अन्दर बाहर 
माँ तब तू याद आती है 

जब थाली परसता है बैरा , कपडे से पोंछ कर 
लेकिन फिर भी एक तेल की तह रह जाती है 
बेस्वाद हो जाती है तब , एक एक निवाले की भूख 
तीखा खा कर तब , आँखे तेरी ममता याद कर 
नम हो जाती है , माँ तब तू याद आती है 

याद आती है , निश्छल तेरी सेवा दुलार , प्यार 
और गलतियाँ मेरी हज़ार , बार बार लगातार
जब तेरा प्यार खोजते हुए , मुझसे कोई लड़की टकराती है 
और मनचाहे ख़्वाब देखते , लेकिन तब तू बिसर जाती है 
एक दिन फिर जब वो भी अकेला छोड़ जाती है 
माँ तब तू याद आती है 

जब खाली होता है मन , और चार दीवारी 
और होती है लाचारी , दूरी , बीमारी 
तब शैशव की वो ढाल , और वो जुडी गर्भनाल पाने 
आत्मा मचल जाती है ,
फैला कर बाहें पेट के इर्द गिर्द , सिकोड़ कर लम्बी टांगें 
तन से वो स्थिति अकस्मात् दोहराती है 
माँ जब तू याद आती है ....

Thursday, September 22, 2011

रोज़ का किस्सा


सातवी मंजिल की बालकोनी के झरोखे से 
नज़र आता है ...
उतरते हुए एक बैंगनी आसमान 
हरी चकत्तों से भरी ज़मीन 
बकरियों को हांकता एक बूढा 
एक कुआँ , और एक चौकोर बगिया 
और चारो और घिरता कंक्रीट का जंगल ...
कभी कबूतरों की गुटर-गूं भी सुनता हूँ 
आती जाती ट्रेन की गूँज भी 
और सुनसान फ्लैट की भयावह सीटी ...
सुबह जब नींद खुलती है , 
सूरज की रजाई उल्टी पलट जाती है नीली 
वो खेत की बोनसाई तब स्वर्ग दिखती है 
मै भी तब बकरियों की तरह चल पड़ता हूँ 
हांकने वाले पे भरोसा कर के ...
अपना स्वर्ग ढूँढने ... किसी गलत दिशा में 

अगड़म ढोंग धतूरा बगड़म


अगर सभी को मिलता जी भर प्यार तो बोलो क्या होता 
अगर चाँद के होते टुकड़े चार तो बोलो क्या होता 
अगर मलंगो का होता घर बार तो बोलो क्या होता 
अगर कायदे से चलता संसार तो बोलो क्या होता 
अगर खयाली पकता खाना , रोज़ तोड़ते बोटी 
अंधे होते लोग अगर तो पहने कौन लंगोटी 
सोचो ठाकुर का शाल अगर कुरते से ही स्टिच होता 
और अगर फूल टकराते न फिल्मो में बच्चा होता ??
बहरी होती दुनिया सारी , और कोई शोर न होता 
पर माँ न कहती लोरी तो क्या सपना अच्छा होता 
(काश) खद्दर , टोपी , लाल बत्ती में होता पागल राजा 
टका सेर ही होती डीजल , उतने का ही माजा
अगर तुम्हारे सर पे खरपतवार न उगती होती 
मेरी कविता चिड़िया उस पे दाना चुगती सोती 
अगड़म ढोंग धतूरा बगड़म पूरा पंडा जो बकता
हर छिद्र बंद न करते तो भेजे का चूरा रिसता?
अगर समझ में आती उसकी बात तो बोलो क्या होता?
अगर कायदे से चलता संसार तो बोलो क्या होता?

Tuesday, September 13, 2011

हिंदी


गगन विस्तृत है तुम्हारा,  ह्रदय कोमल 
अलंकारों से सजी हो , विविध रत्ना 
स्वच्छ सरला , विपुल वेषी लोकभाषा , भारती की 
देवभाषा की छवि हो श्वेतवर्णा 
निहित है साहित्य आँखों में तुम्हारी 
काल की धारा ने संचित कर रखी है 
शब्द-रत्नों से सजी झोली तुम्हारी 
तुम ही थी स्वातंत्र्य ज्योति , सिंह सज्जित 
तुम ही थी विप्लव की पहली गर्जना भी 
एक भूमि एक भाषा , एकता की भावना भी 
सैकड़ो आये पुजारी , होम देने 
निराले दिनकर कई प्रात: तुम्हारा नमन करने 
ज्ञान की वेदी पे अविचल साधना की 
प्रेम , भक्ति , शोर्य , विस्मय भाव ले कर 
कई साधक हठी धर कर निर्जला व्रत 
चुकाई आजन्म श्रद्धा नवरसो के भोग दे कर
ये प्रथा अब काल कवलित हो चली है 
विमुख अब युव पुत्र  वो आते नहीं हैं 
उन्हें कंचन कामिनी की वासना है 
शोक माँ , के आज यूँ  मंदिर तेरा निर्जन बना है  |

Tuesday, August 23, 2011

मुझे खेद है


मुझे खेद है , छद्म नाम पे स्वतंत्रता के 
लूट रहे कई लुटेरे हम को मिलकर...
मुझे खेद है,  यहाँ गडरिये हांक रहे हैं 
भाषा जात-पात की लाठी हाथो लेकर...
चितकबरे ,काले , सुफेद,  रंगीले भेड़
सबकी घास पे कोटे का एहसान जुड़ा है ...
मुझे खेद है , चरवाहों की खालो में
भूखा चतुरा एक भेड़िया घुसा हुआ है ...
घास बाँटने में इनका अंदाज निराला 
रंगों से है मापा किसको बड़ा निवाला 
जमा किये जाता है चारा स्विस खातो में 
इतनी घास कहाँ से पचे तेरी आंतो में ?
भूख हमारी , धार कर रही है इसके नख दन्त 
अपनी भूख से ये ही भेड़िया तब तक भूप महंत ...
मुझे खेद है , आदिम भूख सवाल बनी है ...
और खेद है , मेरे पास जवाब नहीं है 

ब्रम्हराक्षस


जानता हूँ मै सभी आकाश तारे
नील नभ पे रचित नित
वो खेल , मेल - मिलाप इनके
व्यूह रचना नियति की
जिनमे बंधे हैं लोग सारे ...
अनेको पढ़ रहा हूँ मै
यहाँ चेहरे , भेद सब गहरे
विहग आँखो से , पैनी और गहरी
वक्र दृष्टि से कुतरता जा रहा हूँ ...
डूबती सी सांस में आलोचना
के शब्द कहते जा रहा हूँ ...
किन्तु बैठा है , भंवो के बीच
एक मेरा सहोदर शत्रु
लिखता जा रहा है वो 
बही में लाल मेरी भूल के खाते ...
मलिन होता जा रहा हूँ
देखकर उसकी हंसी निर्बाध ,
दे रहा हूँ बडबडाते गालियाँ
और श्राप , उस बेनाम को ,
और देह घिसते जा रहा हूँ ...
कोई आता भी नहीं इस ओर ,
भय से कांपते हैं लोग कहकर
खा चुका हर ललित भाव ,विनोद और आमोद
एक एक ग्रास मेरा बोध , घर ये देह लेकर
ब्रम्हराक्षस

शून्य प्रलाप


तीन चौथाई समय मै देखता हूँ शुन्य में
सोचता हूँ जो वो स्मृति के पटल पे आता नहीं
संगिनी यह चेतना , भी विकल होकर
ये नहीं मालूम जाती है कहाँ तन छोड़ कर
और बाकी बीत जाता है समय , दर्शक बने
रीत जाता है यूँ ही बस देखते ही देखते
हर उर्वर सा एक पल-क्षण , भावना से
रेत जैसे झड रही हो नन्ही नन्ही मुट्ठियो से
अब शून्य ये बस फैलता ही जा रहा है
बन व्याल विष ये धमनिया झुलसा रहा है 

Buried Guilt


तोड़ फोड़ और धमाचौकड़ी
उधम मचाता घर चौबारे
बचपन में इतना नटखट था
मेरे पीछे पड़ी थी दुनिया
हाथ छड़ी ले खड़ी थी दुनिया
घर गलियोँ में मै वांटेड था
बचपन में इतना नटखट था
गर्मी के दिन एक पड़े थे
अम्बुआ डारी आँखे मीचे
चिहु चिहु से आँख खुली तो
देखि चिड़िया एक टहनी पे
उत्पाती थे खुरापात में
एक गुलेल निकाली घर से
एक काले कंचे को भर के
उसपे दिया चलाया मैंने 
उस पल को चित पड़ी जमीन पे
बहुत नाज़ आया तब खुद पे
अर्जुन के गांडीव के जैसे
गर्व हुआ अपनी गुलेल पे
लेकिन देखी पर फैलाए
औंधी पड़ी , आकाश की रानी
तब मुझको याद आई जाने
क्यूँ गौतम की वही कहानी
बहुत बार धिक्कारा खुद को
क्यो गुलेल से मारा तुझको ?
तेरा भी घर बार तो होगा
छोटा एक संसार तो होगा
तेरे बच्चे देख रहे होगे
दाने को बाट तुम्हारी
मैंने अपनी खुरापात में
मटियामेट करी फुलवारी
उस चिड़िया को दफनाया फिर
मैंने अपने बागीचे में
उसको दफना कर शायद
मेरा वो बचपन बीत गया
जान नहीं पाया मै अब तक
हार गया या जीत गया

फुर्सत


मैंने ख्वाब सुहाने देखे
दिन दोपहरी खुली पलक से
आस पास की सारी चीज़े
ओझल ओझल थी आंखो से
बेसुध देख रहे थे लेटे
दूर कोई आवाज़ नहीं थी
किसी फिक्र से सहमी कुम्हलाई
खुशियाँ भी पास नहीं थी

फुर्सत के ऐसे लम्हो में
तिनके तिनके कितने जोड़े
टूटे जब जब बोझिल होकर
कितने ख्वाब अधूरे छोड़े
आज उन्हें पूरे करने
जो ख्वाब अधूरे बचे हुए हैं
दो कांटो के बीच में जाने
कितने लम्हे फंसे हुए हैं

यकीन


जो रोते हैं किसी रोज़
यकीन आता है
हंसी न हो तो निगाहो
में नमी तो है अभी ...
यूँ बिना शोर बही जाए
रगो में साँसे
आह में फूट न पाए
तो यकीन आता है ...
गुम सा कहीं रहता है
धड़कने का सबब
याद आती है तुम्हारी तो
यकीन आता है ...
यकीन आता है ,
बहुत कम के मै
जिंदा हूँ अभी
याद आती है तुम्हारी तो
यकीन आता है ...

Morning Lullaby


भोर भई अब जाग
सलोनी उठ जा रे
अब भोर भई
सपनो की चादर सरका
पट खोल देख
अब भोर भई
मीची पलकें खुले
सुनेहरी अब दिन की बोहनी कर दे
प्यारी चिड़िया तुझे सुनाये
चहक मधुर
अब भोर भई
धरती पे पग रखो
बादलो की दुनिया से विदा हुई
पूरे कर लो काज सभी , अंगड़ाई लो
अब भोर भई

दीप-राग


एक रात ऐसी भी गुजरी
आंखो से थी नींदे गुम
आधी आधी थी परछाई
जलता एक दिया गुमसुम
धू धू कर के उठती कालिख
सायो की प्यास बुझाती थी
और लौ पगली बिरहन जैसे
रोती हंसती बलखाती थी
झोन्को में बहती उमस ने
लौ को मजबूर किया होगा
और सीली सीली बाती ने
वो मीठा दर्द जिया होगा
सुलगी बाती के कुछ अरमान
बाकी होगे आधे आधे
जो प्याले से पीती होगी
उन बिखरे लम्हो की यादे

स्वर्ण-पाश


दूर सजीली बुला रही है
स्वर्ण वर्ण तस्वीरे
किन्तु मेरे पग खींच रही है
सोने की जंजीरे

छतराने को चहुओर मन
सीच रहा है संशय बीज
किन्तु/परन्तु काल/काश के
प्रश्न रहा है पाश सींच

कुछ सदियो के बाद पाश ये
खुल जायेगा अकस्मात्
उड़ जाए पर खोल बसे तब
अंत द्वीप स्थित पारिजात |

घिर आये


घिर घिर आये गरज बरस घन काले काले
बरसाए पानी के मेंढक नाच रहे छम छम मतवाले
चोकलेट के डबरे भर गए
तलवे मेरे चिप चिप कर गए
आये मिलने यार पुराने
टर्र-रम-टू के गीत सुनाने
खूब मचाई धूम धड्य्या
जम कर की मिल छपक छपैय्या
भर भर लायी तब नालो से
तुरत बने छोटे जालो से
रंग बिरंगी सतरंगी और बड़ी सयानी 
चम् चम् करती प्यारी प्यारी मछली रानी
आटे की गोली के भोग लगाये जिसको दादी नानी
थमे घटा के नाज - अदा
तब भागे बच्चे , नुक्कड़ को
5 रुपैय्ये के सुलग रहे ,
खाने खट-मिट्ठे भुट्टो को
बही नाक सर्दी से जब
छींके तो हाहाकार हुआ
अम्मा पापा के हाथो
सब बच्चो का सत्कार हुआ

Fractal Singularity


"In the drunk and dreadful nights I scroll
through shadows from eternity
left but in traces, the wisdom of races
the written words and the battles fought
I find them scattered and tattered
like a jigsa puzzle ,
a winding road in verisimilitude
to some dream-contours in the argand planes
some parameters/equations/strange attractors
in juxtaposition of hallucination and descent
from my being to becoming , a puppet/a believer

damn this damn that , your tit for tat lime-washed sins
and the conception alike of heaven and hell ,
the false laid down , upon the ravaged pyramids/burning temples
the dogmas and the cults , the very foundations
of fallacies and books written after
with blood and bile and soot
and yet they want me to bury myself
in tales of love lost and the myriad worlds
or the likes of gloom and dark and dread
like uncle Poe got lost , long dead
in life , death and dream
but to hold to what is my revelation
I find my beauty/truth in nature divine/sublime
I write my cynical self belief ,
accept it for a crime
don't make me believe your bedtime stories
beyond all damned disparity
in my quintessence I believe nothing but fractal singularity "

दर्द की मंडी


ये दुनिया दर्द की मंडी है
तू अपने धान , लगा ले मोल
उपजे जो तेरे खेतो में
बनिए की भूख , बचा के तोल
धन्ना-सेठो का राज यहाँ
हर बाँट बाँट में बड़ा झोल
है जीभ फांक जैसी इनकी
करते हैं बातें गोल गोल
है लगी होड़ , इनमे अपनी
मुश्को में धान मसलने की
नाना तरकीबे है प्यारे
कुछ ठगने की कुछ छलने की
हर बूँद अश्क की सही जोड़
हक़ है तेरा न तनिक डोल
हर सेठ यहाँ पाखंडी है
ये दुनिया दर्द की मंडी है

दूसरी भूख


आज रोटी नहीं खाई भूल गया
भूल गया दूसरी भूख तन लगने नहीं वाली
ताकता रहा घंटो तक
कब ढल गया दिन , पता नही चला
दौड़ते रहे फ्रेम
क्या किया याद नहीं
बस याद रहा कुछ करना है
कुछ ख़ाली है जो भरना है
आगे बढ़ना है ,
शनिचर शनिचर पुकारती हुई
टुकड़े टुकड़े , बोटी बोटी
ये भूख खा गयी , पेट तेरे हिस्से की रोटी |

Monday, May 16, 2011

आतिश-ऐ-वलीद

जल के हुई है राख तमन्ना
ये ग़म न कर
आगे है आसमान
न बुलन्दियो से डर ,
ये गर्दिशो की परत
उतर जाये खुदबखुद
जुम्बिश पे जुस्तुजू की
रक्स कर के आजमा |

अब देख न तू रास्ता
तिनको का , तौर का
अब और किसी हमनवा
की आस छोड़ दे ,
अनदेखे सहारो को
ये आवाज़ तो लगा
"मै छोड़ चला अब ये मसीहो का दिलासा,
अश्को में छुपी है मेरे हर मर्ज़ की दवा " |

यलगार बदल देगी
वलीद आंधियो का रुख
तू हौसले पे एक कदम
आज तो बढा
ढँक जायेगा अब शम्स भी
साए में परो के
और ख़ाक से निकलेगा
फिर आतिश का परिंदा |

Saturday, April 23, 2011

शब्द-नृत्य

बाँधने दो आज बंधन
विकल मन को
मुंड पे लेपो धधकते
आज शीतल शुभ्र चन्दन 
सोख लेने दो सकल
हर रश्मि रंजित
श्याम तन को
वाष्प करने दो मुझे
हर गंध , छाया , नाद , घर्षण
ढूंढने दो आज वो निर्वात
जिसमे प्राण वायु मौन धर ले
तब मसि पीकर , मदोन्मत्त
लेखनी भी नृत्य कर ले
शब्द वन में ,
पर्ण , शाखे , जड़ , जटाएं
अंग सारे प्रेयसी के रूप भर ले
और झूमे तक धिना धिन
तुनक तुन तुन
प्रेम धुन में

Monday, April 18, 2011

निशि-अनुबंध

कल का स्नेहनुबंध याद है , मंद मंद आनंद याद है
निशिगंधा के रूप लिए बातो की मदिर सुगंध याद है
निर्बाधित आलाप भ्रमर से , अनुगुंजित ज्यू नाम शिखर से
अवगुंठित , अनुराग लिए , पल जो छीने थे किसी प्रहर से
तंद्र तंद्र नयनो में बैठा अर्ध-सुप्त उन्माद याद  है
हे प्रिये तुम्हे कल रात याद है ?

निशि - वेला में विघ्न हुआ जब रश्मि विहीन तुणीर किया
रवि ने जब सप्त-तुरंग चढ़े , सिन्दूरी अम्बर-चीर किया
तब पथ प्रशस्त कर निकल गए , संध्या आश्वत हृदय लेकर
चुप चाप सजीली नार चले जब पग बोले छम रुनझुन कर
कर छोड़े जब दिनकर आये
क्या उस कर का निर्वाह याद है ?
हे प्रिये तुम्हे कल रात याद है ?

Friday, April 15, 2011

टीस

हमउम्र मेरे दानिशमंदो को यूँ बौराते देखा है
मैंने उनको नंगे सडको पे दौड़ लगाते देखा है
दुनिया की बातो पे सोने की धार लगाते देखा है
प्यासी आंखो को सपनो के तेज़ाब पिलाते देखा है |
कमरे में धुप्प अँधेरे रमते,  ध्यान लगाते देखा है
कोचिंग की किश्तो में घर के बर्तन बिकवाते देखा है
अपने हाथो से काग़ज़ के अम्बार जलाते देखा है
कर्जो के कश लेकर तुक में संसार बनाते देखा है |
रिश्वत देकर बाबु से अपनी जात लिखाते देखा है
केरोसिन में सनकर खुद ही तीली सुलगाते देखा है
तमगे को गलवा कर नुक्कड़ पे पान बनाते देखा है
पैसो की खातिर रैली में यलगार उठाते देखा है |
मैदानो पे जिनको लत पथ कसरत फरमाते देखा है
टूटी हाकी से कमरे की दीवार सजाते देखा है
उस भाई को जिसको बहना की लाज बचाते देखा है
बैरैक में उसको भी मैंने आंसू टपकाते देखा है |
कुछ सुर्ख स्याही में उनको बारूद बुझाते देखा है
ग़म फूंक जला अपने प्याले में राख मिलाते देखा है
भूखी आंतो को गांजे के मलहम लगवाते देखा है
और नीली पड़ी हथेली पे रेखाएं बनाते देखा है |
अच्छे खासो को दीवानो सा हाल बनाते देखा है 
चुपचाप अकेले में बैठे डर से थर्राते देखा है
दुनिया की बातो पे सोने की धार लगाते देखा है
प्यासी आंखो को सपनो के तेज़ाब पिलाते देखा है |

Sunday, April 10, 2011

ताबीर

कभी जब डूबती जाए ख़ुशी ,
और सब ओर छाये बेबसी ,
किसी का साथ भूल जाता है ,
जिसे अपना ख्याल आता है |

ऐवेई हम भी खोते रहते है ,
जागी आंखो से सोते रहते हैं ,
मगर सोते से जगा देता है ,
जब ये तूफ़ान उड़ा देता है |

स्याह बादल , बेबसी  तन्हाई
काली यादो की जमी परछाई
ऐसी दीवार गिरा देता है
हर एक गुमान बहा देता है |

तब ख़ुशी से महक जाते हैं हम
बिना पिए बहक जाते है हम
हंसी आती है तब उदासी पर
बोरियत से भरी उबासी पर |

जब बिखर जाती है सब दीवारें
वो दरवाजा भी पसर जाता है
कोई दस्तक तो देता रहता है
जो बहुत बाद नज़र आता है |

हर एक ख़्वाब की ताबीर लिखी होती है
बेकरारी जिसे हमसे छुपाये होती है
मगर जब ज़िन्दगी सजाता है
तब उस ताबीर पे प्यार आता है |

Wednesday, March 30, 2011

बौराकवि

एक छोटे बच्चे को ताने जब लोग सुनाने लगते हैं
ठोकर खाते रोते पिटते , रिश्ते बेमाने लगते है
तब आँखो के निचे काले घेरे से छाने लगते हैं
एक अनदेखी आशंका के बादल मंडराने लगते हैं |


जब कोई ड्योढ़ी के पत्थर पे बैठ सोचता रहता है
चुपके चुपके सिसकी सिसकी आहें ले सब कुछ सहता है
दफनाये आँगन में सड़ते मुर्दे सपनो से डरता है
तब काली काली स्याही से वो पन्ने काले करता है |


तुक में , लय में , सुर सरिता में , संशय में खोता जाता है
अपने दिल में कुण्डी देकर दीवारे गढ़ता जाता है
भावो की बाढ़ तरंगो से जब सब गारा बह जाता है
वह एक कवि का भेस लिए , पागल ठहराया जाता है  |

Saturday, March 26, 2011

चले जाओ



मुझे तुम भूल जाओ और मुझको याद न आओ
ये दरवाजा खुला है अब जहाँ चाहो चले जाओ
गेसुओ की ये जंजीरे अदाओं के ये बहलावे
सहेजो ये तरीके , ये सितम औरो पे बरपाओ
मुजस्सिम है खुदाई हर कली हर फूल में मौजूद
ज़रा चश्मे उतारो , दुसरो पे गौर फरमाओ
न बोलो तुम न बोले हम ये खामोशी मुबारक हो
सुनो न तुम मेरी बातें न मेरे लफ्ज़ दोहराओ
ज़ेहन की बात है , मैं हूँ मेरी बातो के साए हैं
जुबां में फर्क है अपने न उलझो और न उलझाओ
मुझे तुम भूल जाओ और मुझको याद न आओ

Tuesday, March 15, 2011

कांचघर


कांच की बोतलों के बाशिंदे
आप बोले , नहीं कभी सुनते
न उनका दोष न गुनाह इसका
कान देखा है कभी बोतल का
मुट्ठियों से कतई मजबूत नहीं
ज़रा कोशिश करो बांधो तो सही
ये भी एक रोज़ चटख जाएगा
फूट जायेगा छिटक जाएगा
चमचमाती बिखर के हीरों सी
चुभन की दूब नमी देखेगी
भंवर गालों में उभर आयेंगे
मर्सिया दर्द का सुनायेंगे
सुरों को शोर के जामे देकर
बढे कदम जरा पीछे लेकर
तब खुली सांस से न घबराओ
जहाँ तक राह है चले आओ |

Sunday, March 13, 2011


ये शुष्क रुष्क तरु आशा की छाती पे जड़े जमाये है

आश्रय ले कर इसका जीवन ने कितने रंग दिखाए हैं


जब दस्तक देती है वसंत , तब खुल जाते है काष्ठ कंठ

कुछ पंच्छी रहने आते हैं ,कोटर तब गीत सुनाते है


हो चूका ठूंठ , बंजर बंजर , जीवन मधु से भर जाता है

यूँ विस्मृत स्पर्श इसे प्रेयसी अमरबेल का आता है


छालो से तब अनवरत अश्रु इस शब्द वृक्ष के बहते हैं,

तन पे उभरी रेखाओं की तब वह कवितायें कहते हैं ||




"कलपी कलपी काली काली

सगरी रैन जलाए नैन

चखी पुरानी कडवी खट्टी

बिसरी याद कराये बैन

पलकन पनघट सूखे छाए

प्यासे प्यासे पोर

कागे पंख उठाये नभ को

मचा रहे हैं शोर"

Sunday, February 27, 2011

औघड़ गान

तिलक सुशोभित , मान्यवर श्रोता कुलीन
याग्वोपवित धरे संध्या पूजन विलीन
शास्त्र रटित अनुशासित नियमो का पालन
या संसारी प्रचलन का सादर निर्वाह |
काग बलि , मुंडन , कुश ले कर पित्र कर्म
जो विधान बांचे कोई पंडा सधर्म ||

काशी वाराणसी गया नाशिक प्रयाग
गए होगे तुम भी लेने को पुण्य भाग |
गंगा यमुना गोदावरी कावेरी नर्मदा
वैतरणी भय ग्रसित भजे सब सर्वदा ||

महाकुम्भ में तुमने भी तो स्नान किया है
लेकिन क्या तुमने जीवन पे ध्यान दिया है ?
भस्म सुशोभित नंगो की टोली देखी है ?
माया लिपटी तन से जिन ने दे फेंकी है ||

मस्त मलंग तजे सब बाते संसारी
शिव की छवि बनाये हुए जटाधारी |
नर की प्रकृति का ऐसा आदिम स्वरूप
कंचन त्याग भला कैसे बन गया भूप ?

देख इन्हें कैसे मति तेरी चकराती है
मस्ती इस औघड़ की तुमको भरमाती है |
ऐसा भैरव नाद अनसुना करते हो तब
कुछ विकार कह कर मन में छवि भरते हो तब ||

ये विरक्ति तुम को बेतुकी नज़र आती है
मति तेरी इनको अवसादी बतलाती है |
भाग उठा होगा शायद कुछ न पाकर
या गृहस्त जीवन पालन से घबराकर ||

एक पुरुष फिरता है क्यूँ कंदर कानन
करता है प्रकृति स्तन पर जीवन यापन |
उन्मुक्त गगन का बोध , नित्य कलरव सुमधुर
इनसे वंचित नृप दास , देव गन्धर्व असुर ||

नव माह जठर कारागृह में जब किया शयन
माता की पीड़ा सुन रोये तब खुले नयन |
बाल्यावस्था तरुनाई गुरु के दंड सहे
और दर्जन ऐसे कहे गये तुम बंड रहे ||

ऐसी ही चालू हुई कथा सबकी भैय्या
लेकिन इसने देखी दुनिया चलता पहिया |
नाच रहे सब कल पुर्जे ताता थैय्या
भोग रहे साढ़े साती मारक ढैय्या ||

जब कष्ट उठाये होगे इसने मृत्युतुल्य
तब जन्मा लिया होगा औघड़ ने नगद मूल्य |
एकात्म मिलेगा ऐसे ही ये बात सत्य
बंधन माया से पार तभी पायेगा मर्त्य ||

ये पोथे नियम सभी माध्यम है कहने के
बिन डूबे जीवन वैतरणी में बहने के |
जब कल परसो की सोच निरर्थक बन जाए
यह सब धर्मो का ध्येय इसे क्यो न पाए ?

इस औघड़ का जीवन है ऐसा उदाहरण
जहाँ नहीं शोक पीड़ा उत्कंठा नित्य मरण |
नहीं धर्मं भाई ये कर्म कांड के मकड़ जाल
क्यूँ सार नही लेते वेदो का है सवाल ||

जब तुम अपनी स्मृति से जीवन उलझाते हो ,
अवचेतन में तुम अपरिचित हो जाते हो |
त्रयः स्वप्न की भांति भ्रमित हो जाते हैं
ऐसे उलझे होते है पार न पाते हैं |
जब काट निकल जाओगे तुम सारे बंधन
औघड़ की ख़ुशी करेगी निश्छल अभिनन्दन ||

Sunday, February 13, 2011

त्रिकोण

कोमल भावो की तुलना में आभास नहीं पैमाने का ,

क्या प्रेम जिसे कहते है सब ,एक साधन है बस पाने का ?

वो और किसी की आस धरे बैठे है अविरल नयन लिए ,

और हम भी कातर है ऐसे नि-शब्द बने , चिर मौन लिए

मेरे सप्तक के सुर ओझल , आते हैं अनुपम छवि लेकर,

जब ध्यान तुम्हारा करता हूँ इस सुर सरिता में गुम होकर

मुझको दूरी से प्रश्न नही , पर गणित विषम हो जाता है

जब रेखाओ के छोर छोड़ एक तीजा बिंदु आता है

निर्दय साईस के चाबुक से , तब मन तुरंग घबराता है

जब मेरी बिसराई बातें कोई अपना दोहराता है

इन पीड़ा के संबंधो का गंतव्य कहाँ हो कैसा हो ,

मेरी संतुष्टि यही है की , तुम जो चाहो सब वैसा हो

इस यक्ष प्रश्न की जिज्ञासा में उत्कंठित मन कर बैठा ,

इस अंतहीन अज्ञात अगम सागर में क्यूँ गहरे पैठा ?

Saturday, January 15, 2011

पतंग



ग़म के गुबार काट कर उडी पतंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ,
पींगे मार रही झूलो सी ,
रंग बिखरा रही है फूलो सी ,
आज तू देख मेरे ढंग कहे मेरी पतंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ||

ढील दो हसरतो को चाँद की सितारो की ,
इसे गरज नहीं कश्ती की पतवारो की ,
तेज आंधी के थपेड़े भी झेल जायेगी ,
कट गयी तो किसी बच्चे का दिल लुभाएगी ,
पेचो - ख़म ज़िन्दगी के क्या फसायेंगे इसको ,
काट कर उड़ गयी ऐसो को ये अक्खड़ निहंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ||

Tuesday, January 11, 2011

सात ख्वाहिशें

आज भी चेहरे बदल कर मुझसे मिलती है ख़ुशी ,
गर मुनासिब हो तो उसको देखना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै

कोई पत्थर तो उठा मारो कि जिंदा हूँ अभी ,
हो कर आवारा गली में भौंकना चाहूँगा मै
मिल सके न मंजिलें तो ये भी कर के देख लूँ ,
राह अपनी घर को फिर से मोड़ना चाहूँगा मै

कोई आईना तो होगा जो मुझे पहचान ले ,
मेरे मक्तो में तखल्लुस जोड़ना चाहूँगा मै
नाम आ जाए तुम्हारा तो खता ये माफ़ हो ,
हर्फ़-ऐ-उल्फत लिख कलम ये तोडना चाहूँगा मै

नींद आ जाये मुझे कोशिश तो ये ही है सनम ,
ख़्वाब के तारों की चादर ओढना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै

Monday, January 3, 2011

मंथन

बहे जाओ अगर धारो में तुम इस ज़िन्दगी की तो
मेरी मानो किनारो पे सम्हलना भूल जाओगे
सदा ये याद रखना के तुम इन्सां हो मेरे प्यारो ,चलाओ पैर नदिया में नही तो डूब जाओगे

पैठ गहराइयो में सीपियाँ पायी तो क्या पाया ,
अगर मंथन करो तो और कितने रत्न पाओगे
हलाहल से अगर घबरा के कोशिश छोड़ बैठे तुम ,मेरे प्यारे तो अपने यत्न सारे व्यर्थ पाओगे