Tuesday, August 23, 2011

मुझे खेद है


मुझे खेद है , छद्म नाम पे स्वतंत्रता के 
लूट रहे कई लुटेरे हम को मिलकर...
मुझे खेद है,  यहाँ गडरिये हांक रहे हैं 
भाषा जात-पात की लाठी हाथो लेकर...
चितकबरे ,काले , सुफेद,  रंगीले भेड़
सबकी घास पे कोटे का एहसान जुड़ा है ...
मुझे खेद है , चरवाहों की खालो में
भूखा चतुरा एक भेड़िया घुसा हुआ है ...
घास बाँटने में इनका अंदाज निराला 
रंगों से है मापा किसको बड़ा निवाला 
जमा किये जाता है चारा स्विस खातो में 
इतनी घास कहाँ से पचे तेरी आंतो में ?
भूख हमारी , धार कर रही है इसके नख दन्त 
अपनी भूख से ये ही भेड़िया तब तक भूप महंत ...
मुझे खेद है , आदिम भूख सवाल बनी है ...
और खेद है , मेरे पास जवाब नहीं है 

ब्रम्हराक्षस


जानता हूँ मै सभी आकाश तारे
नील नभ पे रचित नित
वो खेल , मेल - मिलाप इनके
व्यूह रचना नियति की
जिनमे बंधे हैं लोग सारे ...
अनेको पढ़ रहा हूँ मै
यहाँ चेहरे , भेद सब गहरे
विहग आँखो से , पैनी और गहरी
वक्र दृष्टि से कुतरता जा रहा हूँ ...
डूबती सी सांस में आलोचना
के शब्द कहते जा रहा हूँ ...
किन्तु बैठा है , भंवो के बीच
एक मेरा सहोदर शत्रु
लिखता जा रहा है वो 
बही में लाल मेरी भूल के खाते ...
मलिन होता जा रहा हूँ
देखकर उसकी हंसी निर्बाध ,
दे रहा हूँ बडबडाते गालियाँ
और श्राप , उस बेनाम को ,
और देह घिसते जा रहा हूँ ...
कोई आता भी नहीं इस ओर ,
भय से कांपते हैं लोग कहकर
खा चुका हर ललित भाव ,विनोद और आमोद
एक एक ग्रास मेरा बोध , घर ये देह लेकर
ब्रम्हराक्षस

शून्य प्रलाप


तीन चौथाई समय मै देखता हूँ शुन्य में
सोचता हूँ जो वो स्मृति के पटल पे आता नहीं
संगिनी यह चेतना , भी विकल होकर
ये नहीं मालूम जाती है कहाँ तन छोड़ कर
और बाकी बीत जाता है समय , दर्शक बने
रीत जाता है यूँ ही बस देखते ही देखते
हर उर्वर सा एक पल-क्षण , भावना से
रेत जैसे झड रही हो नन्ही नन्ही मुट्ठियो से
अब शून्य ये बस फैलता ही जा रहा है
बन व्याल विष ये धमनिया झुलसा रहा है 

Buried Guilt


तोड़ फोड़ और धमाचौकड़ी
उधम मचाता घर चौबारे
बचपन में इतना नटखट था
मेरे पीछे पड़ी थी दुनिया
हाथ छड़ी ले खड़ी थी दुनिया
घर गलियोँ में मै वांटेड था
बचपन में इतना नटखट था
गर्मी के दिन एक पड़े थे
अम्बुआ डारी आँखे मीचे
चिहु चिहु से आँख खुली तो
देखि चिड़िया एक टहनी पे
उत्पाती थे खुरापात में
एक गुलेल निकाली घर से
एक काले कंचे को भर के
उसपे दिया चलाया मैंने 
उस पल को चित पड़ी जमीन पे
बहुत नाज़ आया तब खुद पे
अर्जुन के गांडीव के जैसे
गर्व हुआ अपनी गुलेल पे
लेकिन देखी पर फैलाए
औंधी पड़ी , आकाश की रानी
तब मुझको याद आई जाने
क्यूँ गौतम की वही कहानी
बहुत बार धिक्कारा खुद को
क्यो गुलेल से मारा तुझको ?
तेरा भी घर बार तो होगा
छोटा एक संसार तो होगा
तेरे बच्चे देख रहे होगे
दाने को बाट तुम्हारी
मैंने अपनी खुरापात में
मटियामेट करी फुलवारी
उस चिड़िया को दफनाया फिर
मैंने अपने बागीचे में
उसको दफना कर शायद
मेरा वो बचपन बीत गया
जान नहीं पाया मै अब तक
हार गया या जीत गया

फुर्सत


मैंने ख्वाब सुहाने देखे
दिन दोपहरी खुली पलक से
आस पास की सारी चीज़े
ओझल ओझल थी आंखो से
बेसुध देख रहे थे लेटे
दूर कोई आवाज़ नहीं थी
किसी फिक्र से सहमी कुम्हलाई
खुशियाँ भी पास नहीं थी

फुर्सत के ऐसे लम्हो में
तिनके तिनके कितने जोड़े
टूटे जब जब बोझिल होकर
कितने ख्वाब अधूरे छोड़े
आज उन्हें पूरे करने
जो ख्वाब अधूरे बचे हुए हैं
दो कांटो के बीच में जाने
कितने लम्हे फंसे हुए हैं

यकीन


जो रोते हैं किसी रोज़
यकीन आता है
हंसी न हो तो निगाहो
में नमी तो है अभी ...
यूँ बिना शोर बही जाए
रगो में साँसे
आह में फूट न पाए
तो यकीन आता है ...
गुम सा कहीं रहता है
धड़कने का सबब
याद आती है तुम्हारी तो
यकीन आता है ...
यकीन आता है ,
बहुत कम के मै
जिंदा हूँ अभी
याद आती है तुम्हारी तो
यकीन आता है ...

Morning Lullaby


भोर भई अब जाग
सलोनी उठ जा रे
अब भोर भई
सपनो की चादर सरका
पट खोल देख
अब भोर भई
मीची पलकें खुले
सुनेहरी अब दिन की बोहनी कर दे
प्यारी चिड़िया तुझे सुनाये
चहक मधुर
अब भोर भई
धरती पे पग रखो
बादलो की दुनिया से विदा हुई
पूरे कर लो काज सभी , अंगड़ाई लो
अब भोर भई

दीप-राग


एक रात ऐसी भी गुजरी
आंखो से थी नींदे गुम
आधी आधी थी परछाई
जलता एक दिया गुमसुम
धू धू कर के उठती कालिख
सायो की प्यास बुझाती थी
और लौ पगली बिरहन जैसे
रोती हंसती बलखाती थी
झोन्को में बहती उमस ने
लौ को मजबूर किया होगा
और सीली सीली बाती ने
वो मीठा दर्द जिया होगा
सुलगी बाती के कुछ अरमान
बाकी होगे आधे आधे
जो प्याले से पीती होगी
उन बिखरे लम्हो की यादे

स्वर्ण-पाश


दूर सजीली बुला रही है
स्वर्ण वर्ण तस्वीरे
किन्तु मेरे पग खींच रही है
सोने की जंजीरे

छतराने को चहुओर मन
सीच रहा है संशय बीज
किन्तु/परन्तु काल/काश के
प्रश्न रहा है पाश सींच

कुछ सदियो के बाद पाश ये
खुल जायेगा अकस्मात्
उड़ जाए पर खोल बसे तब
अंत द्वीप स्थित पारिजात |

घिर आये


घिर घिर आये गरज बरस घन काले काले
बरसाए पानी के मेंढक नाच रहे छम छम मतवाले
चोकलेट के डबरे भर गए
तलवे मेरे चिप चिप कर गए
आये मिलने यार पुराने
टर्र-रम-टू के गीत सुनाने
खूब मचाई धूम धड्य्या
जम कर की मिल छपक छपैय्या
भर भर लायी तब नालो से
तुरत बने छोटे जालो से
रंग बिरंगी सतरंगी और बड़ी सयानी 
चम् चम् करती प्यारी प्यारी मछली रानी
आटे की गोली के भोग लगाये जिसको दादी नानी
थमे घटा के नाज - अदा
तब भागे बच्चे , नुक्कड़ को
5 रुपैय्ये के सुलग रहे ,
खाने खट-मिट्ठे भुट्टो को
बही नाक सर्दी से जब
छींके तो हाहाकार हुआ
अम्मा पापा के हाथो
सब बच्चो का सत्कार हुआ

Fractal Singularity


"In the drunk and dreadful nights I scroll
through shadows from eternity
left but in traces, the wisdom of races
the written words and the battles fought
I find them scattered and tattered
like a jigsa puzzle ,
a winding road in verisimilitude
to some dream-contours in the argand planes
some parameters/equations/strange attractors
in juxtaposition of hallucination and descent
from my being to becoming , a puppet/a believer

damn this damn that , your tit for tat lime-washed sins
and the conception alike of heaven and hell ,
the false laid down , upon the ravaged pyramids/burning temples
the dogmas and the cults , the very foundations
of fallacies and books written after
with blood and bile and soot
and yet they want me to bury myself
in tales of love lost and the myriad worlds
or the likes of gloom and dark and dread
like uncle Poe got lost , long dead
in life , death and dream
but to hold to what is my revelation
I find my beauty/truth in nature divine/sublime
I write my cynical self belief ,
accept it for a crime
don't make me believe your bedtime stories
beyond all damned disparity
in my quintessence I believe nothing but fractal singularity "

दर्द की मंडी


ये दुनिया दर्द की मंडी है
तू अपने धान , लगा ले मोल
उपजे जो तेरे खेतो में
बनिए की भूख , बचा के तोल
धन्ना-सेठो का राज यहाँ
हर बाँट बाँट में बड़ा झोल
है जीभ फांक जैसी इनकी
करते हैं बातें गोल गोल
है लगी होड़ , इनमे अपनी
मुश्को में धान मसलने की
नाना तरकीबे है प्यारे
कुछ ठगने की कुछ छलने की
हर बूँद अश्क की सही जोड़
हक़ है तेरा न तनिक डोल
हर सेठ यहाँ पाखंडी है
ये दुनिया दर्द की मंडी है

दूसरी भूख


आज रोटी नहीं खाई भूल गया
भूल गया दूसरी भूख तन लगने नहीं वाली
ताकता रहा घंटो तक
कब ढल गया दिन , पता नही चला
दौड़ते रहे फ्रेम
क्या किया याद नहीं
बस याद रहा कुछ करना है
कुछ ख़ाली है जो भरना है
आगे बढ़ना है ,
शनिचर शनिचर पुकारती हुई
टुकड़े टुकड़े , बोटी बोटी
ये भूख खा गयी , पेट तेरे हिस्से की रोटी |