Thursday, September 22, 2011

रोज़ का किस्सा


सातवी मंजिल की बालकोनी के झरोखे से 
नज़र आता है ...
उतरते हुए एक बैंगनी आसमान 
हरी चकत्तों से भरी ज़मीन 
बकरियों को हांकता एक बूढा 
एक कुआँ , और एक चौकोर बगिया 
और चारो और घिरता कंक्रीट का जंगल ...
कभी कबूतरों की गुटर-गूं भी सुनता हूँ 
आती जाती ट्रेन की गूँज भी 
और सुनसान फ्लैट की भयावह सीटी ...
सुबह जब नींद खुलती है , 
सूरज की रजाई उल्टी पलट जाती है नीली 
वो खेत की बोनसाई तब स्वर्ग दिखती है 
मै भी तब बकरियों की तरह चल पड़ता हूँ 
हांकने वाले पे भरोसा कर के ...
अपना स्वर्ग ढूँढने ... किसी गलत दिशा में 

अगड़म ढोंग धतूरा बगड़म


अगर सभी को मिलता जी भर प्यार तो बोलो क्या होता 
अगर चाँद के होते टुकड़े चार तो बोलो क्या होता 
अगर मलंगो का होता घर बार तो बोलो क्या होता 
अगर कायदे से चलता संसार तो बोलो क्या होता 
अगर खयाली पकता खाना , रोज़ तोड़ते बोटी 
अंधे होते लोग अगर तो पहने कौन लंगोटी 
सोचो ठाकुर का शाल अगर कुरते से ही स्टिच होता 
और अगर फूल टकराते न फिल्मो में बच्चा होता ??
बहरी होती दुनिया सारी , और कोई शोर न होता 
पर माँ न कहती लोरी तो क्या सपना अच्छा होता 
(काश) खद्दर , टोपी , लाल बत्ती में होता पागल राजा 
टका सेर ही होती डीजल , उतने का ही माजा
अगर तुम्हारे सर पे खरपतवार न उगती होती 
मेरी कविता चिड़िया उस पे दाना चुगती सोती 
अगड़म ढोंग धतूरा बगड़म पूरा पंडा जो बकता
हर छिद्र बंद न करते तो भेजे का चूरा रिसता?
अगर समझ में आती उसकी बात तो बोलो क्या होता?
अगर कायदे से चलता संसार तो बोलो क्या होता?

Tuesday, September 13, 2011

हिंदी


गगन विस्तृत है तुम्हारा,  ह्रदय कोमल 
अलंकारों से सजी हो , विविध रत्ना 
स्वच्छ सरला , विपुल वेषी लोकभाषा , भारती की 
देवभाषा की छवि हो श्वेतवर्णा 
निहित है साहित्य आँखों में तुम्हारी 
काल की धारा ने संचित कर रखी है 
शब्द-रत्नों से सजी झोली तुम्हारी 
तुम ही थी स्वातंत्र्य ज्योति , सिंह सज्जित 
तुम ही थी विप्लव की पहली गर्जना भी 
एक भूमि एक भाषा , एकता की भावना भी 
सैकड़ो आये पुजारी , होम देने 
निराले दिनकर कई प्रात: तुम्हारा नमन करने 
ज्ञान की वेदी पे अविचल साधना की 
प्रेम , भक्ति , शोर्य , विस्मय भाव ले कर 
कई साधक हठी धर कर निर्जला व्रत 
चुकाई आजन्म श्रद्धा नवरसो के भोग दे कर
ये प्रथा अब काल कवलित हो चली है 
विमुख अब युव पुत्र  वो आते नहीं हैं 
उन्हें कंचन कामिनी की वासना है 
शोक माँ , के आज यूँ  मंदिर तेरा निर्जन बना है  |