Sunday, February 27, 2011

औघड़ गान

तिलक सुशोभित , मान्यवर श्रोता कुलीन
याग्वोपवित धरे संध्या पूजन विलीन
शास्त्र रटित अनुशासित नियमो का पालन
या संसारी प्रचलन का सादर निर्वाह |
काग बलि , मुंडन , कुश ले कर पित्र कर्म
जो विधान बांचे कोई पंडा सधर्म ||

काशी वाराणसी गया नाशिक प्रयाग
गए होगे तुम भी लेने को पुण्य भाग |
गंगा यमुना गोदावरी कावेरी नर्मदा
वैतरणी भय ग्रसित भजे सब सर्वदा ||

महाकुम्भ में तुमने भी तो स्नान किया है
लेकिन क्या तुमने जीवन पे ध्यान दिया है ?
भस्म सुशोभित नंगो की टोली देखी है ?
माया लिपटी तन से जिन ने दे फेंकी है ||

मस्त मलंग तजे सब बाते संसारी
शिव की छवि बनाये हुए जटाधारी |
नर की प्रकृति का ऐसा आदिम स्वरूप
कंचन त्याग भला कैसे बन गया भूप ?

देख इन्हें कैसे मति तेरी चकराती है
मस्ती इस औघड़ की तुमको भरमाती है |
ऐसा भैरव नाद अनसुना करते हो तब
कुछ विकार कह कर मन में छवि भरते हो तब ||

ये विरक्ति तुम को बेतुकी नज़र आती है
मति तेरी इनको अवसादी बतलाती है |
भाग उठा होगा शायद कुछ न पाकर
या गृहस्त जीवन पालन से घबराकर ||

एक पुरुष फिरता है क्यूँ कंदर कानन
करता है प्रकृति स्तन पर जीवन यापन |
उन्मुक्त गगन का बोध , नित्य कलरव सुमधुर
इनसे वंचित नृप दास , देव गन्धर्व असुर ||

नव माह जठर कारागृह में जब किया शयन
माता की पीड़ा सुन रोये तब खुले नयन |
बाल्यावस्था तरुनाई गुरु के दंड सहे
और दर्जन ऐसे कहे गये तुम बंड रहे ||

ऐसी ही चालू हुई कथा सबकी भैय्या
लेकिन इसने देखी दुनिया चलता पहिया |
नाच रहे सब कल पुर्जे ताता थैय्या
भोग रहे साढ़े साती मारक ढैय्या ||

जब कष्ट उठाये होगे इसने मृत्युतुल्य
तब जन्मा लिया होगा औघड़ ने नगद मूल्य |
एकात्म मिलेगा ऐसे ही ये बात सत्य
बंधन माया से पार तभी पायेगा मर्त्य ||

ये पोथे नियम सभी माध्यम है कहने के
बिन डूबे जीवन वैतरणी में बहने के |
जब कल परसो की सोच निरर्थक बन जाए
यह सब धर्मो का ध्येय इसे क्यो न पाए ?

इस औघड़ का जीवन है ऐसा उदाहरण
जहाँ नहीं शोक पीड़ा उत्कंठा नित्य मरण |
नहीं धर्मं भाई ये कर्म कांड के मकड़ जाल
क्यूँ सार नही लेते वेदो का है सवाल ||

जब तुम अपनी स्मृति से जीवन उलझाते हो ,
अवचेतन में तुम अपरिचित हो जाते हो |
त्रयः स्वप्न की भांति भ्रमित हो जाते हैं
ऐसे उलझे होते है पार न पाते हैं |
जब काट निकल जाओगे तुम सारे बंधन
औघड़ की ख़ुशी करेगी निश्छल अभिनन्दन ||

Sunday, February 13, 2011

त्रिकोण

कोमल भावो की तुलना में आभास नहीं पैमाने का ,

क्या प्रेम जिसे कहते है सब ,एक साधन है बस पाने का ?

वो और किसी की आस धरे बैठे है अविरल नयन लिए ,

और हम भी कातर है ऐसे नि-शब्द बने , चिर मौन लिए

मेरे सप्तक के सुर ओझल , आते हैं अनुपम छवि लेकर,

जब ध्यान तुम्हारा करता हूँ इस सुर सरिता में गुम होकर

मुझको दूरी से प्रश्न नही , पर गणित विषम हो जाता है

जब रेखाओ के छोर छोड़ एक तीजा बिंदु आता है

निर्दय साईस के चाबुक से , तब मन तुरंग घबराता है

जब मेरी बिसराई बातें कोई अपना दोहराता है

इन पीड़ा के संबंधो का गंतव्य कहाँ हो कैसा हो ,

मेरी संतुष्टि यही है की , तुम जो चाहो सब वैसा हो

इस यक्ष प्रश्न की जिज्ञासा में उत्कंठित मन कर बैठा ,

इस अंतहीन अज्ञात अगम सागर में क्यूँ गहरे पैठा ?