Monday, December 12, 2011

प्रवासी


चरमराती है कमर आखिरी करवट सुबह लेकर 
उनींदी आँख मलते तब , ख़्वाब कुछ खोजता हूँ मै 
बिखर जाते हैं जो आते हुए यूँ होश में मुझसे, 
उन्ही की छाप भी चुपचाप  कुछ पल सोचता हूँ मै 
सोचते सोचते ही निपटते है काम तडके के , 
नहाकर झड गए बालों का मातम भी मनाओ मत ,
वक़्त कम है , बहुत कम है , मगर ये सोच चिपकी है 
जिस्म से खाल के जैसे , खाल से बाल के जैसे ... 
उतर कर तब इमारत से , घडी भर भींचता हूँ  सब 
वो हरियाली सुबह की , और किसी पंची का वो परवाज़ .. 
किनारों से पलक के अब भी जो बोझिल है जाने क्यूँ ! 
न जाने क्या उठाये है , जो इतना थक गयी हैं वो ?
मुझे तब खिंच लेती है , वो टपरी टीन की बरबस 
जहाँ जुड़ते हैं कुछ मजदूर पीने चाय की प्याली 
मेरे जैसे मेरे जैसे ...  

दो बढ़ते पिल्लै अपनी दुम हिलाते हैं , मेरे आगे 
और उनकी माँ कपासी रंग की , भी टोह लेती हैं 
कुछ वडा-पाव के टुकड़े , न जाने कौन दानी दे ?
मेरी आँखों में यूँ वो झाँकने का जतन करती है ... 
चुस्कियां चाय की लेते , पराये देस में अपने 
बोलते हैं जुबानो में , हंसी ठठ्ठो में बेतरतीब 
मुझे तब याद आती है , वो पिच्छले बरस की होली 
मेरे कानो में जब घुलती है वो घर-गाँव की बोली 
सने होते हैं गारे में फटे कुछ , और सजे पैबंद 
कपडे ढांकने तन श्रमिक के , जैसे मेरे ये शब्द 
घर से दूर आये , धान की मिटटी सने जो पाँव 
जोड़ने को फसल के बीज , कल के ख़्वाब , छत की छाँव 
मुझे भी खिंच लायी है , मेरी फसलों की उम्मीदे 
मै भी उनकी तरह बैठा हूँ इस परदेस में आकर ...
हांकते जा रहा वो खुदा जैसे मै उसकी भेड़
पास ही है इसी टपरी के एक बरगद का बूढा पेड़ 
जटाएं झूलती उसकी , हवा में जैसे मेरे ख़्वाब 
मगर गहरे जमी धरती में है जड़ सोखने को आब 
मै भी जाऊंगा घर एक दिन , किसी मजदूर के जैसे 
मेरी फसले निहारूंगा , न जाने कब किसी दिन और ..
उड़ेंगे एक दिन परदेस के पंच्छी , परो को खोल 
टूट जाएगा जब ख्वाबो से भर के , ख़ाक का गुल्लक  
मेरे मन हार ना , एक दिन यकीनन होगा ऐसा भी 
बसेंगे फिर से अपने घर , चलेंगे फिर से अपने गाँव ...


Monday, December 5, 2011

सवाली


हक से मिले जो फांक 
न हक से मिली वो ख़ाक 
कपडे बदलते रोज़ , 
जो बदले न उसमे झाँक ...


हर रोज़ जलना है मुझे 
मानिंद-ऐ-आफ़ताब ..
पल पल कहे पुकार के 
पल पल का रख हिसाब ...

जुम्बिश से ही बता दियो 
समझूंगा साफ़ साफ़ ..
कैसी तेरी जुबान है, 
के लिहाफ पर लिहाफ 

न इल्म का सुकून मुझे 
न कुफ्र की फ़िराक
मुझको सनम की चाह है 
मोमिन पढो किताब ...

मै तो तेरा मुजस्समा 
तू मेरा संगकार ..
जो मै ख़राब तो तेरी 
कारीगरी ख़राब ..

मौजूद अब भी चार सु 
सोये है बेहिजाब ... 
अपने सवाल मै गिनू 
दीजो मुझे जवाब ...