कोमल भावो की तुलना में आभास नहीं पैमाने का ,
क्या प्रेम जिसे कहते है सब ,एक साधन है बस पाने का ?
वो और किसी की आस धरे बैठे है अविरल नयन लिए ,
और हम भी कातर है ऐसे नि-शब्द बने , चिर मौन लिए
मेरे सप्तक के सुर ओझल , आते हैं अनुपम छवि लेकर,
जब ध्यान तुम्हारा करता हूँ इस सुर सरिता में गुम होकर
मुझको दूरी से प्रश्न नही , पर गणित विषम हो जाता है
जब रेखाओ के छोर छोड़ एक तीजा बिंदु आता है
निर्दय साईस के चाबुक से , तब मन तुरंग घबराता है
जब मेरी बिसराई बातें कोई अपना दोहराता है
इन पीड़ा के संबंधो का गंतव्य कहाँ हो कैसा हो ,
मेरी संतुष्टि यही है की , तुम जो चाहो सब वैसा हो
इस यक्ष प्रश्न की जिज्ञासा में उत्कंठित मन कर बैठा ,
इस अंतहीन अज्ञात अगम सागर में क्यूँ गहरे पैठा ?
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