Sunday, February 13, 2011

त्रिकोण

कोमल भावो की तुलना में आभास नहीं पैमाने का ,

क्या प्रेम जिसे कहते है सब ,एक साधन है बस पाने का ?

वो और किसी की आस धरे बैठे है अविरल नयन लिए ,

और हम भी कातर है ऐसे नि-शब्द बने , चिर मौन लिए

मेरे सप्तक के सुर ओझल , आते हैं अनुपम छवि लेकर,

जब ध्यान तुम्हारा करता हूँ इस सुर सरिता में गुम होकर

मुझको दूरी से प्रश्न नही , पर गणित विषम हो जाता है

जब रेखाओ के छोर छोड़ एक तीजा बिंदु आता है

निर्दय साईस के चाबुक से , तब मन तुरंग घबराता है

जब मेरी बिसराई बातें कोई अपना दोहराता है

इन पीड़ा के संबंधो का गंतव्य कहाँ हो कैसा हो ,

मेरी संतुष्टि यही है की , तुम जो चाहो सब वैसा हो

इस यक्ष प्रश्न की जिज्ञासा में उत्कंठित मन कर बैठा ,

इस अंतहीन अज्ञात अगम सागर में क्यूँ गहरे पैठा ?

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