नींद किसे प्यारी नहीं होती
मै भी सोया था एक रविवार की सुबह
इतनी गहरी नींद कि सपने भी दस्तक न दे , बस औंधे पड़े रहे ...
लेकिन जगा दिया किसी ने , फ़ोन की घंटी से
मिलना था जरुरी , अकेले कटता भी नहीं समय
नहा संवर कर निकल गया , रिक्शा पकड़ कर मीटर हिसाब से
रास्ते पर देखी एक कोयल , लाल आँखों से घूरती ,
निर्लज्ज न जाने किस के घोसले में अंडे दे आई होगी
एक कब्रिस्तान गुजरा , और एक कुत्ता देखा .. पहरे देता
शायद HMV के मोनो में ग्रामोफोन की जगह एक कब्र थी , इसलिए याद रहा
बड़े शेहरो की मेल-भेंट जैसे होती है , एक moll पे किसी का इंतज़ार करना था
moll पंहुचा तो देखा बंद था , नींद से वो भी फारिग नहीं था रविवार की उस सुबह ..
...
चिलचिला रही थी सर पे ठण्ड की धुप , सूखता जा रहा था गला
तब अवतरित हुआ कहीं से , lemon सोडा ढ़ोता एक देवदूत
एकाएक तब छायादार वृक्ष भी अनावृत हुआ अदृश्यता के चोगे त्याग
एक ग्लास हलक से उतार कर , अमृत सुधा में खोया था ,
के फिर जगा दिया मुझे चलते फिरते लोगो ने ,
वो सिग्नल पे खड़ा तोंदू मामा , newspaper लिए बैठी लडकियां
और अन्य जूझते लोग ...
तब एक बैलगाड़ी ने सिग्नल तोडा , बैल था बलिष्ट बड़े बड़े सींग , मांसल देह ..
साक्षात नंदी हो जैसे , बर्फ की सिल्लियाँ ढ़ोता
मामा ने रोकना चाह , चालक बोला "काय करणार साहेब !! बैल आहे "
और निकल पड़ा .. मुझे फिर प्यास आई , और फिर lemon सोडा से तृप्त हुआ ..
तब उस विशाल बैल ने प्रेमचंद के "दो बैलों की कहानी" की पहली पंक्ति याद दिला दी
गधा सबसे सीधा जानवर होता है , उसके बाद बैल आता है ..
वो बैल शायद इसलिए बेवक़ूफ़ है क्यूँ की वो ढ़ो रहा है बर्फ की सिल्ली प्यासा
शिव के वाहन समान , कल्याण करता फिर रहा है लोगो का , निस्वार्थ ...
फिर मिलना हुआ एक मित्र से , औपचारिकताएं निभाई .. कुछ सुनी कुछ सुनाई
देखा समाज में फिर जा कर , एकांत से निकल कर .. कुछ अकबकी सी महसूस हुई
जैसे चुंधिया जाते हैं किसी कोयला खदान के मजदूर की आँखे वापस आ कर भू-गर्भ से
विदा कर निकल पड़ा फिर स्टेशन से मै .. अपने फ्लैट को .. की कबूतरों ने मेरा मार्ग छेंक लिया
चार दाने मेरी जेब में होते तो शायद दाल देता .. लेकिन बिना रोयल्टी उनके छायाचित्र निकाल लिए
तब याद आ गयी सुबह की वो कोयल .. उन्मुक्त कबूतरों की बात से
मधुर मोहिनी गाती , और सौंप जाती अंडे घोंसले में कागो के ..
शायद इसलिए इतनी कुरूप , भयानक लाल आँखों वाली है वो ..
सुना है कागा बड़ा सयाना होता है , लेकिन वो भी चूक जाता है ...
शायद हमें सिखाता है , बड़े बुजुर्गो जैसे .. गलतियां न दोहराने अपनी
पित्र पक्ष में शायद इस लिए भाग पाता है बलि का ...
आज वो श्वान फिर याद आया मुझे , बचपन के सपने जैसे ...
कब्र को देखता ... हो सकता है उसे एक हड्डी की तलाश हो , पेट भरने
मगर लगता है , जैसे बहुत पहले चिर-निद्रा सोये अपने मालिक की बाट देखता है ..
प्रेम-पाश में ... ये निस्वार्थ नहीं , लेकिन स्वार्थ के साथ भी नहीं
इंसान का पुराना दोस्त .. संगत में बिगड़ तो नहीं गया सदियों की ..
प्रेम तो करता है निस्वार्थ स्वाभाविक , लेकिन पेट से विवश है
इसलिए नचा लेते हैं लोग, और नाचता है यह ...
ये जीवन बंधन शायद इसकी विवशता है ...
सिखाता है मुझे वो नश्वरता दुनिया की , बन्धनों की ..
और प्यार में डूबे हुए भी , अपना पेट भरने की जुगत करने की ...