कोई मुझे रोकता है
बेबसी की लय पे फिर बार बार करता हूँ , वही गलत काम एक,
एक धुन में "धा धिन धिन तिर किट धिन "
फंसा हुआ रहता है मन बहुत विकट ,
मकड़ जालो में खयालो के रात या के दिन
एक धुन में "धा धिन धिन तिर किट धिन "
कातर सा करता है मुझे ...ग्लानी भाव मुझमे भरता है,
उठा पटक करता है अन्दर बाहर मेरे, एक अजीब प्रश्न बना रहता है ...
क्यूँ ऐसा करता तू क्यूँ ऐसा करता है ?
चेहरे जो उभरे है तकिये पे ताकते हैं ,
जाने क्या आँखों में वो पिशाच झांकते हैं
खोखला है अन्दर सब, गहन अंधेरो में घुसा
अगर मिला तो भी क्या रोता बैठा कोई ...
मै नहीं हूँ वो विकृत मानव की एक छाया
अपराधी प्रकृति का बीज मात्र ...निज में एक परकाया
बांधने की चेष्ठाएं करता हूँ
भरसक रखता हूँ बना नियमो के कवच कितने
शब्द जाप और काले डोरों के तंत्र यन्त्र ,
और उलझ जाता हूँ, निष्फल होकर तब जब
एक पल के लिए उसे रोक नहीं पाता हूँ
फिर वही दोहराता हूँ...
No comments:
Post a Comment