Thursday, October 11, 2012

जब चाँद हथेली पर होता

कुछ कम कुछ और ज्यादा है , ये तो दस्तूर सदा से है
तुम से कुछ गिला नहीं मुझको , शिकवा बस मेरी वफ़ा से है ..
जो उलझी है हर बात अगर , तो सुलझाने से तौबा क्यूँ
एक छोर पकड़ सुलझाते तुम , एक छोर पे मै हाज़िर होता
एक बूँद शफक से चोरी कर , मै उसमे सागर भर देता ..
इस रात की कालिख कम होती , जब चाँद हथेली पर होता
वो राह नहीं जिसपे उसके कदमो की चाप नहीं आती,
वो साथ अगर हो जाता तो, दूरी का किसको गम होता ..
एक अश्क मेरे सिरहाने पर , कब से तनहा है न जाने
सीला तकिया भी कहता है, पी लेता जो कुछ कम पीता
मै वक़्त की सुइयां पीछे कर , चाहूँ तो ठीक न कर पाऊं
ऐसे गुनाह है कुछ मेरे, गर ना होते ...हमदम होता ..
उस मील के पत्थर को अपना भगवान बना कर पूजूंगा
जो तुम भी थाल सजाते तो, अपना सच्चा संगम होता ..
बस एक ही ख्वाब मेरा था यह , तुम होते , और एक घर होता
इस रात की कालिख कम होती , जब चाँद हथेली पर होता

No comments:

Post a Comment