Tuesday, January 11, 2011

सात ख्वाहिशें

आज भी चेहरे बदल कर मुझसे मिलती है ख़ुशी ,
गर मुनासिब हो तो उसको देखना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै

कोई पत्थर तो उठा मारो कि जिंदा हूँ अभी ,
हो कर आवारा गली में भौंकना चाहूँगा मै
मिल सके न मंजिलें तो ये भी कर के देख लूँ ,
राह अपनी घर को फिर से मोड़ना चाहूँगा मै

कोई आईना तो होगा जो मुझे पहचान ले ,
मेरे मक्तो में तखल्लुस जोड़ना चाहूँगा मै
नाम आ जाए तुम्हारा तो खता ये माफ़ हो ,
हर्फ़-ऐ-उल्फत लिख कलम ये तोडना चाहूँगा मै

नींद आ जाये मुझे कोशिश तो ये ही है सनम ,
ख़्वाब के तारों की चादर ओढना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै

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