Sunday, August 23, 2009

मेरा बचपन

सुबहों के ख्वाब सुहाने थे ,
चाहत के ताने - बाने थे ,
रेशम सी कोमल बातें थी,
फिसले फिसले अफ़साने थे |
हाथों में कुछ कच्ची-कच्ची ,
गीली मिटटी की लोई थी,
और छोटे छोटे हाथों से,
उसके सर-पैर बनाने थे |

तोडा जोड़ा पुर्जा मोड़ा,
कुछ लिखा कुछ कोरा छोडा,
अपनी मर्ज़ी के मालिक थे,
जो ठीक लगा अक्षर जोड़ा |
सूरज के हल्दी से पीले ,
चहरे पे चाँद के चूने से,
हमने कुदरत को रंग डाला ,
अपने अंदाज , करीने से |
कितनी बेबाक उडाने थी,
अपने हाथों में धागे थे...

हर लम्हों में साथी भी था,
चन्दन का एक हाथी भी था,
जाने कब साथी छूट गया,
हाथी का पुतला टूट गया.
घर के बाहर आकर मेरा,
संसार अकेला छुट गया |
मेरी खुद की जागीरें थी,
उस के बाहर बेगाने थे...

तब दुनिया ने मुझको बदला ,
अपने पैमाने पर रखकर ,
मुझ से मेरा बचपन छीना ,
दुनिया से जूझो कह कह कर |
अब भी मेरा बचपन मुझसे ,
कहता है खोलो दरवाजे ,
और दुनिया में पिसता तन्हा ,
सुनता हूँ उसकी आवाजें |

एक दिन आयेगा जब अपने ,
आँगन में फिर देखूंगा मै,
एक मेरे जैसा शेह्जादा ,
उसको ना दबने दूंगा मै .
जी लूंगा तब बाकी लम्हे,
जो पहले जीते जाने थे |

2 comments:

  1. hi Parval ji,this poem is really fantastic...i really appricate your writing..keep going!!!

    OoOoPsSs....I wrote Parwal,but your name is Praval..well whatver,i love PARWAL.majezar sabji hoti hai!!

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