Wednesday, August 5, 2009

यह घर अभी तक खाली है

पिछले मुसाफिर ने यहाँ रह कर कुछ एक पल,
छोडा था मकान यह ,
इस की दीवारों पे लिख कर इबारते कुछ , टूटी हुई निब से ;
वो हर्फ़ अब रिस रहे है लाल स्याहियां, और सुर्ख हो चुकी हैं यह सफ़ेद दीवारे |

अरमानों के बोझ से धसक रही है छत ,
और एक खला सा हँस रहा है झाँक कर ,
सड़ने लगी है अब वो शीशम की अलमारियां ,
जिन में पड़े हैं अब भी कुछ बाकी सामान ,
घर की देहलीज पे अब काले घेरे से दिखते हैं,
जहाँ बसा करती है फफूंदों की एक बस्ती ,
एक सीली सी हवस जिन्हें जिंदा रखे है |

आँखों के इस घर में अब कोई मुसाफिर ,
आया तो इसकी हालत से डर जाएगा ,
कुछ ताने मारेगा मालिक पर इस घर के,
ले कर बोरी-बिस्तर आगे बढ़ जाएगा ,
उसको क्या बोलें , इस में पहले रहने वाले ने,
एक भी किश्त किराए की नहीं भेजी है...
इसीलिए यह घर अभी तक खाली है.
इसीलिए यह घर अभी तक खाली है ||

2 comments:

  1. I think you are new in blogging, thats why commenting in your own content :D anyways keep it up. good work

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  2. These poems are written by you or copy pasted from another blog?

    If the article is your, then you should stop right click on your blog.

    -movie fridays-

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