छोडा था मकान यह ,
इस की दीवारों पे लिख कर इबारते कुछ , टूटी हुई निब से ;
वो हर्फ़ अब रिस रहे है लाल स्याहियां, और सुर्ख हो चुकी हैं यह सफ़ेद दीवारे |
अरमानों के बोझ से धसक रही है छत ,
और एक खला सा हँस रहा है झाँक कर ,
सड़ने लगी है अब वो शीशम की अलमारियां ,
जिन में पड़े हैं अब भी कुछ बाकी सामान ,
घर की देहलीज पे अब काले घेरे से दिखते हैं,
जहाँ बसा करती है फफूंदों की एक बस्ती ,
एक सीली सी हवस जिन्हें जिंदा रखे है |
आँखों के इस घर में अब कोई मुसाफिर ,
आया तो इसकी हालत से डर जाएगा ,
कुछ ताने मारेगा मालिक पर इस घर के,
ले कर बोरी-बिस्तर आगे बढ़ जाएगा ,
उसको क्या बोलें , इस में पहले रहने वाले ने,
एक भी किश्त किराए की नहीं भेजी है...
इसीलिए यह घर अभी तक खाली है.
इसीलिए यह घर अभी तक खाली है ||
I think you are new in blogging, thats why commenting in your own content :D anyways keep it up. good work
ReplyDeleteThese poems are written by you or copy pasted from another blog?
ReplyDeleteIf the article is your, then you should stop right click on your blog.
-movie fridays-