मेरे खतो के कफ़न काग़ज़ी लिफाफो से ,
दफ़न से हर्फ़ ज़रा अब महक रहे होगे,
अब उनकी खूबसूरती उतर गयी होगी ,
वक़्त के साथ मायने बदल गए होगे |
मगर हैरत मेरे पते पे लौटते क्यूँ नही ,
तुम्हे छूते ही चिपक जाते हैं सायो की तरह,
तुम्हे शिकन नही होती सडन से क्यूँ उनकी ,
कही जुकाम तो नही , नही आने की वजह |
खतो को फातेहा पढता हूँ आज मै अपने ,
उन्हें सुपुर्द किये जा रहा हूँ वो सपने ,
महक जिनकी सड़ांध कम कर दे ,
और शायद जुकाम भी हर दे |
मुझे तो शौक था पत्थर से दिल लगाने का ,
और हुनर देखना दाँतो से नख चबाने का,
ज़रा जल्दी करो होता है वक़्त जाने का ,
हश्र भी देखना है तेरे उस बहाने का |
मै इंतज़ार करूँगा तुम्हारे आने का ||
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