Tuesday, September 13, 2011

हिंदी


गगन विस्तृत है तुम्हारा,  ह्रदय कोमल 
अलंकारों से सजी हो , विविध रत्ना 
स्वच्छ सरला , विपुल वेषी लोकभाषा , भारती की 
देवभाषा की छवि हो श्वेतवर्णा 
निहित है साहित्य आँखों में तुम्हारी 
काल की धारा ने संचित कर रखी है 
शब्द-रत्नों से सजी झोली तुम्हारी 
तुम ही थी स्वातंत्र्य ज्योति , सिंह सज्जित 
तुम ही थी विप्लव की पहली गर्जना भी 
एक भूमि एक भाषा , एकता की भावना भी 
सैकड़ो आये पुजारी , होम देने 
निराले दिनकर कई प्रात: तुम्हारा नमन करने 
ज्ञान की वेदी पे अविचल साधना की 
प्रेम , भक्ति , शोर्य , विस्मय भाव ले कर 
कई साधक हठी धर कर निर्जला व्रत 
चुकाई आजन्म श्रद्धा नवरसो के भोग दे कर
ये प्रथा अब काल कवलित हो चली है 
विमुख अब युव पुत्र  वो आते नहीं हैं 
उन्हें कंचन कामिनी की वासना है 
शोक माँ , के आज यूँ  मंदिर तेरा निर्जन बना है  |

No comments:

Post a Comment