Thursday, September 22, 2011

रोज़ का किस्सा


सातवी मंजिल की बालकोनी के झरोखे से 
नज़र आता है ...
उतरते हुए एक बैंगनी आसमान 
हरी चकत्तों से भरी ज़मीन 
बकरियों को हांकता एक बूढा 
एक कुआँ , और एक चौकोर बगिया 
और चारो और घिरता कंक्रीट का जंगल ...
कभी कबूतरों की गुटर-गूं भी सुनता हूँ 
आती जाती ट्रेन की गूँज भी 
और सुनसान फ्लैट की भयावह सीटी ...
सुबह जब नींद खुलती है , 
सूरज की रजाई उल्टी पलट जाती है नीली 
वो खेत की बोनसाई तब स्वर्ग दिखती है 
मै भी तब बकरियों की तरह चल पड़ता हूँ 
हांकने वाले पे भरोसा कर के ...
अपना स्वर्ग ढूँढने ... किसी गलत दिशा में 

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