Sunday, March 13, 2011


ये शुष्क रुष्क तरु आशा की छाती पे जड़े जमाये है

आश्रय ले कर इसका जीवन ने कितने रंग दिखाए हैं


जब दस्तक देती है वसंत , तब खुल जाते है काष्ठ कंठ

कुछ पंच्छी रहने आते हैं ,कोटर तब गीत सुनाते है


हो चूका ठूंठ , बंजर बंजर , जीवन मधु से भर जाता है

यूँ विस्मृत स्पर्श इसे प्रेयसी अमरबेल का आता है


छालो से तब अनवरत अश्रु इस शब्द वृक्ष के बहते हैं,

तन पे उभरी रेखाओं की तब वह कवितायें कहते हैं ||


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