Wednesday, March 30, 2011

बौराकवि

एक छोटे बच्चे को ताने जब लोग सुनाने लगते हैं
ठोकर खाते रोते पिटते , रिश्ते बेमाने लगते है
तब आँखो के निचे काले घेरे से छाने लगते हैं
एक अनदेखी आशंका के बादल मंडराने लगते हैं |


जब कोई ड्योढ़ी के पत्थर पे बैठ सोचता रहता है
चुपके चुपके सिसकी सिसकी आहें ले सब कुछ सहता है
दफनाये आँगन में सड़ते मुर्दे सपनो से डरता है
तब काली काली स्याही से वो पन्ने काले करता है |


तुक में , लय में , सुर सरिता में , संशय में खोता जाता है
अपने दिल में कुण्डी देकर दीवारे गढ़ता जाता है
भावो की बाढ़ तरंगो से जब सब गारा बह जाता है
वह एक कवि का भेस लिए , पागल ठहराया जाता है  |

No comments:

Post a Comment