सोचता हूँ जो वो स्मृति के पटल पे आता नहीं
संगिनी यह चेतना , भी विकल होकर
ये नहीं मालूम जाती है कहाँ तन छोड़ कर
और बाकी बीत जाता है समय , दर्शक बने
रीत जाता है यूँ ही बस देखते ही देखते
हर उर्वर सा एक पल-क्षण , भावना से
रेत जैसे झड रही हो नन्ही नन्ही मुट्ठियो से
अब शून्य ये बस फैलता ही जा रहा है
बन व्याल विष ये धमनिया झुलसा रहा है
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