Monday, December 12, 2011
प्रवासी
Monday, December 5, 2011
सवाली
Sunday, November 27, 2011
गूंथी कहानियाँ , एक दिन का लेखा जोखा
Wednesday, November 23, 2011
नैन सुने
बस आँखों से बातें कर लूँ
रुई के फाहे भर कानो में
सारे रंग तुम्हारे चख लूँ ..
इधर उधर फैला है जितना
इतना निश्छल इतना निर्मल
बहते झरने से चेहरों के
बाँध अंजुली अमृत हर लूँ ..
नाट्यमंच फैला है विस्तृत
पल में जी लूँ ,मन में रख लूँ ..
Wednesday, October 26, 2011
किसान की पहली बेटी
Tuesday, October 4, 2011
माँ
Thursday, September 22, 2011
रोज़ का किस्सा
अगड़म ढोंग धतूरा बगड़म
Tuesday, September 13, 2011
हिंदी
Tuesday, August 23, 2011
मुझे खेद है
ब्रम्हराक्षस
शून्य प्रलाप
Buried Guilt
फुर्सत
दीप-राग
घिर आये
Fractal Singularity
दर्द की मंडी
Monday, May 16, 2011
आतिश-ऐ-वलीद
ये ग़म न कर
आगे है आसमान
न बुलन्दियो से डर ,
ये गर्दिशो की परत
उतर जाये खुदबखुद
जुम्बिश पे जुस्तुजू की
रक्स कर के आजमा |
अब देख न तू रास्ता
तिनको का , तौर का
अब और किसी हमनवा
की आस छोड़ दे ,
अनदेखे सहारो को
ये आवाज़ तो लगा
"मै छोड़ चला अब ये मसीहो का दिलासा,
अश्को में छुपी है मेरे हर मर्ज़ की दवा " |
यलगार बदल देगी
वलीद आंधियो का रुख
तू हौसले पे एक कदम
आज तो बढा
ढँक जायेगा अब शम्स भी
साए में परो के
और ख़ाक से निकलेगा
फिर आतिश का परिंदा |
Saturday, April 23, 2011
शब्द-नृत्य
विकल मन को
मुंड पे लेपो धधकते
आज शीतल शुभ्र चन्दन
सोख लेने दो सकल
हर रश्मि रंजित
श्याम तन को
वाष्प करने दो मुझे
हर गंध , छाया , नाद , घर्षण
ढूंढने दो आज वो निर्वात
जिसमे प्राण वायु मौन धर ले
तब मसि पीकर , मदोन्मत्त
लेखनी भी नृत्य कर ले
शब्द वन में ,
पर्ण , शाखे , जड़ , जटाएं
अंग सारे प्रेयसी के रूप भर ले
और झूमे तक धिना धिन
तुनक तुन तुन
प्रेम धुन में
Monday, April 18, 2011
निशि-अनुबंध
निशिगंधा के रूप लिए बातो की मदिर सुगंध याद है
निर्बाधित आलाप भ्रमर से , अनुगुंजित ज्यू नाम शिखर से
अवगुंठित , अनुराग लिए , पल जो छीने थे किसी प्रहर से
तंद्र तंद्र नयनो में बैठा अर्ध-सुप्त उन्माद याद है
हे प्रिये तुम्हे कल रात याद है ?
निशि - वेला में विघ्न हुआ जब रश्मि विहीन तुणीर किया
रवि ने जब सप्त-तुरंग चढ़े , सिन्दूरी अम्बर-चीर किया
तब पथ प्रशस्त कर निकल गए , संध्या आश्वत हृदय लेकर
चुप चाप सजीली नार चले जब पग बोले छम रुनझुन कर
कर छोड़े जब दिनकर आये
क्या उस कर का निर्वाह याद है ?
हे प्रिये तुम्हे कल रात याद है ?
Friday, April 15, 2011
टीस
Sunday, April 10, 2011
ताबीर
और सब ओर छाये बेबसी ,
किसी का साथ भूल जाता है ,
जिसे अपना ख्याल आता है |
ऐवेई हम भी खोते रहते है ,
जागी आंखो से सोते रहते हैं ,
मगर सोते से जगा देता है ,
जब ये तूफ़ान उड़ा देता है |
स्याह बादल , बेबसी तन्हाई
काली यादो की जमी परछाई
ऐसी दीवार गिरा देता है
हर एक गुमान बहा देता है |
तब ख़ुशी से महक जाते हैं हम
बिना पिए बहक जाते है हम
हंसी आती है तब उदासी पर
बोरियत से भरी उबासी पर |
जब बिखर जाती है सब दीवारें
वो दरवाजा भी पसर जाता है
कोई दस्तक तो देता रहता है
जो बहुत बाद नज़र आता है |
हर एक ख़्वाब की ताबीर लिखी होती है
बेकरारी जिसे हमसे छुपाये होती है
मगर जब ज़िन्दगी सजाता है
तब उस ताबीर पे प्यार आता है |
Wednesday, March 30, 2011
बौराकवि
ठोकर खाते रोते पिटते , रिश्ते बेमाने लगते है
तब आँखो के निचे काले घेरे से छाने लगते हैं
एक अनदेखी आशंका के बादल मंडराने लगते हैं |
जब कोई ड्योढ़ी के पत्थर पे बैठ सोचता रहता है
चुपके चुपके सिसकी सिसकी आहें ले सब कुछ सहता है
दफनाये आँगन में सड़ते मुर्दे सपनो से डरता है
तब काली काली स्याही से वो पन्ने काले करता है |
तुक में , लय में , सुर सरिता में , संशय में खोता जाता है
अपने दिल में कुण्डी देकर दीवारे गढ़ता जाता है
भावो की बाढ़ तरंगो से जब सब गारा बह जाता है
वह एक कवि का भेस लिए , पागल ठहराया जाता है |
Saturday, March 26, 2011
चले जाओ
Tuesday, March 15, 2011
कांचघर
Sunday, March 13, 2011
ये शुष्क रुष्क तरु आशा की छाती पे जड़े जमाये है
आश्रय ले कर इसका जीवन ने कितने रंग दिखाए हैं
जब दस्तक देती है वसंत , तब खुल जाते है काष्ठ कंठ
कुछ पंच्छी रहने आते हैं ,कोटर तब गीत सुनाते है
हो चूका ठूंठ , बंजर बंजर , जीवन मधु से भर जाता है
यूँ विस्मृत स्पर्श इसे प्रेयसी अमरबेल का आता है
छालो से तब अनवरत अश्रु इस शब्द वृक्ष के बहते हैं,
तन पे उभरी रेखाओं की तब वह कवितायें कहते हैं ||
Sunday, February 27, 2011
औघड़ गान
याग्वोपवित धरे संध्या पूजन विलीन
शास्त्र रटित अनुशासित नियमो का पालन
या संसारी प्रचलन का सादर निर्वाह |
काग बलि , मुंडन , कुश ले कर पित्र कर्म
जो विधान बांचे कोई पंडा सधर्म ||
काशी वाराणसी गया नाशिक प्रयाग
गए होगे तुम भी लेने को पुण्य भाग |
गंगा यमुना गोदावरी कावेरी नर्मदा
वैतरणी भय ग्रसित भजे सब सर्वदा ||
महाकुम्भ में तुमने भी तो स्नान किया है
लेकिन क्या तुमने जीवन पे ध्यान दिया है ?
भस्म सुशोभित नंगो की टोली देखी है ?
माया लिपटी तन से जिन ने दे फेंकी है ||
मस्त मलंग तजे सब बाते संसारी
शिव की छवि बनाये हुए जटाधारी |
नर की प्रकृति का ऐसा आदिम स्वरूप
कंचन त्याग भला कैसे बन गया भूप ?
देख इन्हें कैसे मति तेरी चकराती है
मस्ती इस औघड़ की तुमको भरमाती है |
ऐसा भैरव नाद अनसुना करते हो तब
कुछ विकार कह कर मन में छवि भरते हो तब ||
ये विरक्ति तुम को बेतुकी नज़र आती है
मति तेरी इनको अवसादी बतलाती है |
भाग उठा होगा शायद कुछ न पाकर
या गृहस्त जीवन पालन से घबराकर ||
एक पुरुष फिरता है क्यूँ कंदर कानन
करता है प्रकृति स्तन पर जीवन यापन |
उन्मुक्त गगन का बोध , नित्य कलरव सुमधुर
इनसे वंचित नृप दास , देव गन्धर्व असुर ||
नव माह जठर कारागृह में जब किया शयन
माता की पीड़ा सुन रोये तब खुले नयन |
बाल्यावस्था तरुनाई गुरु के दंड सहे
और दर्जन ऐसे कहे गये तुम बंड रहे ||
ऐसी ही चालू हुई कथा सबकी भैय्या
लेकिन इसने देखी दुनिया चलता पहिया |
नाच रहे सब कल पुर्जे ताता थैय्या
भोग रहे साढ़े साती मारक ढैय्या ||
जब कष्ट उठाये होगे इसने मृत्युतुल्य
तब जन्मा लिया होगा औघड़ ने नगद मूल्य |
एकात्म मिलेगा ऐसे ही ये बात सत्य
बंधन माया से पार तभी पायेगा मर्त्य ||
ये पोथे नियम सभी माध्यम है कहने के
बिन डूबे जीवन वैतरणी में बहने के |
जब कल परसो की सोच निरर्थक बन जाए
यह सब धर्मो का ध्येय इसे क्यो न पाए ?
इस औघड़ का जीवन है ऐसा उदाहरण
जहाँ नहीं शोक पीड़ा उत्कंठा नित्य मरण |
नहीं धर्मं भाई ये कर्म कांड के मकड़ जाल
क्यूँ सार नही लेते वेदो का है सवाल ||
जब तुम अपनी स्मृति से जीवन उलझाते हो ,
अवचेतन में तुम अपरिचित हो जाते हो |
त्रयः स्वप्न की भांति भ्रमित हो जाते हैं
ऐसे उलझे होते है पार न पाते हैं |
जब काट निकल जाओगे तुम सारे बंधन
औघड़ की ख़ुशी करेगी निश्छल अभिनन्दन ||
Sunday, February 13, 2011
त्रिकोण
कोमल भावो की तुलना में आभास नहीं पैमाने का ,
क्या प्रेम जिसे कहते है सब ,एक साधन है बस पाने का ?
वो और किसी की आस धरे बैठे है अविरल नयन लिए ,
और हम भी कातर है ऐसे नि-शब्द बने , चिर मौन लिए
मेरे सप्तक के सुर ओझल , आते हैं अनुपम छवि लेकर,
जब ध्यान तुम्हारा करता हूँ इस सुर सरिता में गुम होकर
मुझको दूरी से प्रश्न नही , पर गणित विषम हो जाता है
जब रेखाओ के छोर छोड़ एक तीजा बिंदु आता है
निर्दय साईस के चाबुक से , तब मन तुरंग घबराता है
जब मेरी बिसराई बातें कोई अपना दोहराता है
इन पीड़ा के संबंधो का गंतव्य कहाँ हो कैसा हो ,
मेरी संतुष्टि यही है की , तुम जो चाहो सब वैसा हो
इस यक्ष प्रश्न की जिज्ञासा में उत्कंठित मन कर बैठा ,
इस अंतहीन अज्ञात अगम सागर में क्यूँ गहरे पैठा ?
Saturday, January 15, 2011
पतंग
ग़म के गुबार काट कर उडी पतंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ,
पींगे मार रही झूलो सी ,
रंग बिखरा रही है फूलो सी ,
आज तू देख मेरे ढंग कहे मेरी पतंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ||
ढील दो हसरतो को चाँद की सितारो की ,
इसे गरज नहीं कश्ती की न पतवारो की ,
तेज आंधी के थपेड़े भी झेल जायेगी ,
कट गयी तो किसी बच्चे का दिल लुभाएगी ,
पेचो - ख़म ज़िन्दगी के क्या फसायेंगे इसको ,
काट कर उड़ गयी ऐसो को ये अक्खड़ निहंग ,
डोर के साथ साथ झूम रही मस्त मलंग ||
Tuesday, January 11, 2011
सात ख्वाहिशें
गर मुनासिब हो तो उसको देखना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै
कोई पत्थर तो उठा मारो कि जिंदा हूँ अभी ,
हो कर आवारा गली में भौंकना चाहूँगा मै
मिल सके न मंजिलें तो ये भी कर के देख लूँ ,
राह अपनी घर को फिर से मोड़ना चाहूँगा मै
कोई आईना तो होगा जो मुझे पहचान ले ,
मेरे मक्तो में तखल्लुस जोड़ना चाहूँगा मै
नाम आ जाए तुम्हारा तो खता ये माफ़ हो ,
हर्फ़-ऐ-उल्फत लिख कलम ये तोडना चाहूँगा मै
नींद आ जाये मुझे कोशिश तो ये ही है सनम ,
ख़्वाब के तारों की चादर ओढना चाहूँगा मै
यूँ सुलगती जा रही है ज़िन्दगी क्यूँ खुद-ब-खुद ,
आखिरी कश ले के सिगरेट छोड़ना चाहूँगा मै
Monday, January 3, 2011
मंथन
बहे जाओ अगर धारो में तुम इस ज़िन्दगी की तो
मेरी मानो किनारो पे सम्हलना भूल जाओगे
सदा ये याद रखना के तुम इन्सां हो मेरे प्यारो ,चलाओ पैर नदिया में नही तो डूब जाओगे
पैठ गहराइयो में सीपियाँ पायी तो क्या पाया ,
अगर मंथन करो तो और कितने रत्न पाओगे
हलाहल से अगर घबरा के कोशिश छोड़ बैठे तुम ,मेरे प्यारे तो अपने यत्न सारे व्यर्थ पाओगे